चाल माना की मुखालिफ़ वो मेरे चलता नहीं
ये भी सच है मात देने से कभी रुकता नहीं
लोग कहते है की मेरी ज़ात हे दरीया सिफ़त
वाक़ई ये सच हे तो में किस लिये बहता नहीं
बात तन्हा क्या करे वहम-ओ-गुमाँ की हम भला
बाखुदा अब तो हक़ीक़त में भी कुछ रक्खा नहीं
ये अलग हे बात जो आता नहीं तुझको नज़र
वर्ना तेरे वास्ते दिल में मेरे क्या क्या नहीं
क़ार-ए-दरीया की हक़ीक़त जान ने के वास्ते
साहिलों पर बैठकर हमने कभी देखा नहीं
जाबजा सबकुछ ही मिल जाता हे ता हद्दे-नज़र
बस वजूद-ए-ज़ात का नाम-ओ-निशाँ मिलता नहीं
तज़किरा करता हे 'असलम' हम से दीवानों पे वो
जो कभी दीवानगी की राह से गुज़रा नहीं
-असलम मीर
भाई ग़ज़ल बहुत उम्दा कही पर कुछ शब्दों के मतलब समझने में मुश्किल हुई | आप अपनी ग़ज़लों में कठिन शब्दों के मतलब लिख पायें तो ख़ुशी होगी | आभार
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