Monday 4 February 2013

ज़ात    बेरंग    तो   बेनुर   सा  लहजा   करता 
कब  तलक  तु  हि  बता  में तेरा सदमा करता 


कोइ   मिलता   जो   ख़रीदार   मुक़ाबिल  मेरे 
शौक़ से में भी दिल-ओ-जान  का सौदा करता 


तुने  अच्छा  हि  किया  देके ना आने की ख़बर 
वर्ना    ताउम्र    तेरी   राह   में   देखा   करता 


जैसे करता है हर  एक  शख्स  पे ऐसे ही कभी 
अय  मेरे दोस्त  तू  ख़ुद पर भी भरोसा करता 


थी  ये  दानाई   कहां  की  जो  अंधेरें  के  लीये 
ख़ुद ही घर अपना  जलाकर में उजाला करता 


सु-ए-आईना कभी  जाती जो  नज़रें 'असलम'    
जाने  क्या  क्या में  मुझे देख के सोचा करता 


-असलम मीर

Saturday 2 February 2013


चाल  माना  की  मुखालिफ़  वो   मेरे   चलता   नहीं
ये    भी   सच  है  मात   देने  से  कभी  रुकता  नहीं 


लोग   कहते   है   की  मेरी   ज़ात  हे  दरीया सिफ़त 
वाक़ई  ये  सच  हे  तो  में   किस  लिये  बहता  नहीं


बात  तन्हा  क्या  करे  वहम-ओ-गुमाँ की हम भला  
बाखुदा  अब  तो  हक़ीक़त  में  भी  कुछ  रक्खा नहीं 


ये  अलग  हे  बात  जो  आता   नहीं   तुझको  नज़र 
वर्ना   तेरे   वास्ते   दिल   में   मेरे  क्या क्या   नहीं 


क़ार-ए-दरीया    की   हक़ीक़त   जान ने   के  वास्ते 
साहिलों   पर   बैठकर   हमने   कभी    देखा    नहीं 


जाबजा  सबकुछ  ही  मिल  जाता  हे   ता हद्दे-नज़र 
बस  वजूद-ए-ज़ात का नाम-ओ-निशाँ मिलता नहीं 


तज़किरा  करता हे 'असलम'  हम से  दीवानों पे वो 
जो  कभी    दीवानगी   की   राह   से   गुज़रा   नहीं 



-असलम मीर        

Thursday 10 January 2013

जहाँ   देखो   वहाँ   मील  जायेगी  परछाइयाँ  अपनी 
बहुत    मशहूर   हैं   इस   शेहर   में  रुस्वाइयाँ अपनी 



तुम्हारी  तुम  ही  जानो एहले-दाना, ऐ  खिरद  वालो 
हमे   तो   रास   आती   हैं   सदा   नादानियाँ   अपनी  



दिले-नाशाद   तेरा   क्या   करे   आबाद   होकर   भी 
हमेशा   याद   रहती   हैं   तुझे    बरबादियाँ    अपनी 



बलन्दी  की  हकीक़त का  मज़ा  हरगिज़ न पाओगे 
अगर   देखी   नहीं    हैं   आपने  नाकामियाँ   अपनी 



हीसारे-दीद    से   बचना  बहुत  दुशवार  था लेकिन 
खुदा  का   शुक्र   हे   महफूज़  हैं  खामोशियाँ अपनी 



न  जाने  कब  मुकम्मल   देख   पायेगे   वजूदे-ज़ात 
कहीं  हम   हे, कहीं पैकर, कहीं  परछाइयाँ   अपनी 



सरापा    सुरते-गुलशन    सभी    से   पेश    आयेगी 
नुमायाँ   हो  नहीं   सकती  कभी वीरानियाँ  अपनी 



सुनेगा   और   कोई  किस तरह फरमाईये 'असलम'
कि जब तुम ही नहीं सुन पा रहे सरगोशियाँ अपनी 




-असलम मीर