Monday 4 February 2013

ज़ात    बेरंग    तो   बेनुर   सा  लहजा   करता 
कब  तलक  तु  हि  बता  में तेरा सदमा करता 


कोइ   मिलता   जो   ख़रीदार   मुक़ाबिल  मेरे 
शौक़ से में भी दिल-ओ-जान  का सौदा करता 


तुने  अच्छा  हि  किया  देके ना आने की ख़बर 
वर्ना    ताउम्र    तेरी   राह   में   देखा   करता 


जैसे करता है हर  एक  शख्स  पे ऐसे ही कभी 
अय  मेरे दोस्त  तू  ख़ुद पर भी भरोसा करता 


थी  ये  दानाई   कहां  की  जो  अंधेरें  के  लीये 
ख़ुद ही घर अपना  जलाकर में उजाला करता 


सु-ए-आईना कभी  जाती जो  नज़रें 'असलम'    
जाने  क्या  क्या में  मुझे देख के सोचा करता 


-असलम मीर

2 comments:

  1. बेहतरीन ग़ज़ल
    फॉलो करने की जगह कहीं दिखी नहीं
    अफसोस तो रहेगा
    सादर

    मेरे बागीचे

    http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
    http://yashoda4.blogspot.in/
    http://4yashoda.blogspot.in/
    http://yashoda04.blogspot.in/

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  2. बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही आपने असलम मियां | सुभानाल्लाह!!!

    एक राय देना चाहूँगा बंधू अपने ब्लॉग पर आप फोल्लोवेर्स वाला विजेट लगायें जिससे श्रोता आपके ब्लॉग का अनुसरण कर सकें |

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